विक्रम बेताल की कहानी: दीवान की मृत्यु - बेताल पच्चीसी बारहवीं कहानी

April 19, 2021 द्वारा लिखित

Story of Vikram Betal Death of Diwan - Betal Twenty Five Twelfth Story

कई असफलताओं के बाद राजा विक्रमादित्य ने एक बार फिर बेताल को योगी के पास ले जाने की कोशिश में अपनी पीठ कर लादा और चल पड़े। रास्ता काटने के लिए बेताल ने फिर से राजा को एक नई कहानी सुनानी शुरू की।

बहुत पुरानी बात है, यशकेतु नाम के राजा पुण्यपुर नामक राज्य में राज करते थे। उनका सत्यमणि नाम का एक दीवान था। सत्यमणि बड़ा ही समझदार और चतुर मंत्री था। वह राजा का सारा राज-पाठ संभालता था और विलासी राजा मंत्री पर सारा भार डालकर भोग में पड़ा रहता।

राजा के भोग-विलासिता में होते अधिक खर्च की वजह से राज कोष का धन कम होने लगा। प्रजा भी राजा से नाराज रहने लगी। जब मंत्री को इस बारे में पता चला कि सब राजा की निंदा कर रहे हैं, तो उसे बहुत दुःख हुआ। फिर जब उसने देखा कि राजा के साथ उसकी भी निन्दा हो रही है, तो उसे बहुत बुरा लगा। सत्यमणि ने अपने आप को शांत करने के लिए तीर्थयात्रा पर जाने के बारे में सोचा। इस बारे में उसने राजा से बात की और आज्ञा लेकर वह तीर्थ-यात्रा पर निकल गया।

सत्यमणि चलते-चलते एक समुद्री तट पर पहुंच गया। पूरा दिन बीत गया और रात हो चुकी थी। उसने सोचा कि आज रात यहीं रुक कर आराम कर लेता हूं। यह सोच कर वह एक पेड़ के नीचे सो गया।

आधी रात को जब उसकी आंख खुली, तो उसने देखा कि समुद्र से एक जगमगाता वृक्ष निकल रहा है। उस पर तरह-तरह के हीरे-जवारात लगे हुए थे। उस वृक्ष पर वीणा बजाती एक सुंदर-सी कन्या बैठी थी। इस नजारे को देख सत्यमणि को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। देखते ही देखते अचानक वह पेड़ और उस पर बैठी कन्या गायब हो गई। इस सब के बाद वह हक्का-बक्का रह गया और उल्टे पैर अपने नगर की ओर दौड़ पड़ा।

जब वह राज्य पहुंचा, तो उसने देखा कि उसकी अनुपस्थिति की वजह से राजा के सारे लोभ छूट गए हैं। उसने राजा को पूरा किस्सा सुनाया। दीवान की यह बात सुनकर राजा के मन में उस कन्या को पाने की लालसा पैदा हो गई। उसने सारा राज्य दीवान के भरोसे छोड़ दिया और खुद साधू का भेष बनाकर उस समुद्री तट पर जा पहुंचा।

जब रात हुई, तो राजा को भी वह हीरे-मोती से जड़ा वृक्ष दिखा। वह कन्या अब भी उस वृक्ष पर बैठी हुई थी। राजा तैरता हुआ उस कन्या के पास जा पहुंचा और उसे अपना परिचय दिया। फिर उसने कन्या से उसके बारे में पूछा। कन्या ने कहा, “मेरा नाम मृगांकवती है और मैं राजा गंधर्व विद्याधर की पुत्री हूं।” फिर राजा ने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा और कन्या ने कहा, “आप जैसे महान राजा की रानी बनकर मेरा जीवन सफल हो जाएगा राजन, लेकिन मेरी एक शर्त है। मैं हर कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की चतुर्दशी और अष्टमी को एक राक्षस के पास जाती हूं, जो मुझे निगल लेता है। आपको उस राक्षस को खत्म करना होगा।” राजा यशकेतु ने तुरंत यह शर्त मान ली।

इसके बाद शुक्लपक्ष की चतुर्दशी आई, तो मृगांकवती रात को बाहर निकली। उसके साथ राजा भी गया और छिपकर उस राक्षस का इंतजार करने लगा। कुछ देर बाद राक्षस वहां आया और कन्या को निगल गया। यह देखकर राजा ने राक्षस पर हमला किया और अपनी तलवार से उसका पेट चीरकर मृगांकवती को जीवित बाहर निकाल लिया।

इसके बाद राजा ने उससे पूछा कि यह सब क्या है। इस पर मृगांकवती ने उत्तर दिया कि, “मैं हर अष्टमी और चतुदर्शी के दिन यहां शिव पूजा करने आती हूं और जब तक मैं घर नहीं लौटती मेरे पिता मेरे बिना कभी भोजन करते। एक बार मुझे घर पहुंचने में देर हो गई और पिताजी को अधिक देर तक भूखा रहना पड़ा। जब मैं घर लौटी तो वह बहुत गुस्सा थे और उन्होंने मुझे श्राप दे दिया कि जब भी मैं चतुर्दशी के दिन पूजा करने जाएंगी, तो एक राक्षस मुझे निगल लेगा। फिर मैं उसका पेट चीरकर बाहर निकल आया करूंगी।

जब मैंने उनसे श्राप से मुक्त करने की विनती की, तो उन्होंने कहा कि जब पुण्यपुर के राजा मुझसे विवाह करने के लिए उस राक्षस का वध करेंगे, तो मैं श्रापमुक्त हो जाऊंगी।

कन्या के श्रापमुक्त होने के बाद राजा उसे अपने साथ अपने राज्य ले आए और धूमधाम से उसके साथ शादी की। इसके बाद राजा ने दीवान को सारी कहानी सुनाई और यह सब सुनकर दीवान की मृत्यु हो गई।

इतना कहकर बेताल ने राजा विक्रम से पूछा, “हे राजन! अब तुम यह बताओ कि यह सब सुनकर दीवान की मृत्यु क्यों हुई थी?”
विक्रम ने कहा, “दीवान की मृत्यु इसलिए हुई, क्योंकि उसने सोचा कि राजा फिर स्त्री के लोभ में पड़ गया और उसके भोग-विलास के कारण राज्य की दशा फिर से खराब हो जाएगी। उस कन्या के बारे में राजा को न बताना ही बेहतर था।”

राजा विक्रम ने जैसे ही उत्तर दिया, बेताल फिर से पेड़ की ओर उड़ चला और जाकर उस पर उल्टा लटक गया। वहीं, राजा विक्रमादित्य एक बार फिर बेताल को पकड़ने उसके पीछे दौड़ पड़े।

कहानी से सीख:

किसी भी व्यक्ति को भोग विलास में इतना नहीं डूबना चाहिए कि उसका सबकुछ खत्म हो जाए। अपनी स्थिति और जरूरत के हिसाब से ही चीजों को करना अच्छा होता है।

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